लेखक आशुतोष तिवारी
कुछ घटनाएँ हमें चौंका देती हैं । कुछ ऐसी होती हैं , जिनकी स्मृति हमें सोने तक नही देती । राजस्थान से कुछ दिनों पहले ऐसी ही एक ख़बर आई । 9 साल के दलित बच्चे की शिक्षक की पिटाई से मौत हो गई । घरवालों ने आरोप लगाया कि पानी का मटका छूने पर टीचर ने बच्चे को बेरहमी से पीटा था । 23 दिन बाद इस बच्चे की मौत हो गई । हम जिस समाज में हैं , वहाँ सबसे ख़राब बात ये हो रही है कि हम इन ख़बरों को ले कर सहज होते जा रहे हैं । एनसीआरबी का डेटा बताता है कि भारत में साल 2021 में हर घंटे दलितों के खिलाफ किए जाने वाले छह अपराध दर्ज हुए हैं । यह दर्ज हुए केसों का नम्बर है ,जो नही दर्ज होते हैं सो अलग । इस ख़बर को पढ़कर कुछ बिंदु दिमाग़ में आए हैं ,जो आपसे साझा कर रहा हूँ ।
1- हम यह मानकर चलते हैं कि हर समाज में किसी न किसी तरह से विभाजन और शोषण रहा है । लेकिन असल बात यह है कि कोई समाज अपने शोषक – इतिहास के प्रति कितना अपराध बोध महसूस करता है । उस अपराध -बोध को ज़मीन पर उतारने के लिए वह किस तरह के फ़ैसले लेता है । कमोबेश भारत की स्थिति इस मामले में निराशाजनक है । वह समाज , जो कभी शोषक की भूमिका में रहे हैं , अपराध -बोध की बजाय दलितों की बेहतरी को ‘ख़ुद के लिए चुनौती’ जैसा माना रहे हैं । यही वजह है कि हर घंटे दलितों के ख़िलाफ़ किए जाने 6 अपराध रजिस्टर हो रहे हैं ।दलित दूल्हों को घोड़ी चढ़ने से समस्या हो रही है ।
2- एक नामी दार्शनिक (नाम अभी याद नही आ रहा ) ने कहा कि क़ानून यह बताता है कि समाज को किस दिशा में चलना चाहिए । लेकिन समाज किस दिशा में चलेगा ,यह समाज ही तय करता है । ज़रूर सामाजिक बदलावों में क़ानून की भूमिका अहम होती है लेकिन अगर आप देखेंगे कि दलितों की बेहतरी के लिए जो क़दम सरकारें संविधान के स्तर पर उठा रही हैं , उससे समाज के एक बड़े तबके को ‘बड़ी दिक्कत’ महसूस हो रही है ।यही वजह है कि आरक्षण व्यवस्था में बेहतरी की बात करने की बजाय बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं ,जो आरक्षण की मूल व्यवस्था पर ही सवाल खड़े कर देते हैं । भारत में आरक्षण के ख़िलाफ़ लड़ाई में ज़्यादा सामाजिक उग्रता देखी गई है ।अब तो सरकारें भी इसे ले कर दबाव में है ।
3- क़ानून से आए बदलाव कभी भी स्थाई नही होंगे ,अगर समाज उसके लिए तैयार नही होगा । इस सच के बावजूद क़ानून बदलावों में अहम भूमिका निभाते हैं । जैसे हिन्दू मैरिज एक्ट से हिंदू महिलाओं की स्थिति बेहतर हुई है और पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने से उनकी स्थिति में सुधार हुआ है । दलितों के प्रति अपराध को डील करने के लिए अलग से भी क़ानून हैं लेकिन स्थाई और जातीय दबंगपन की वजह से लोग केस रजिस्टर कराने से डरते हैं । राजस्थान के मामले में अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराध दर में सबसे नाटकीय वृद्धि हुई है । सरकारों के लिए यह सोचने का समय है कि उन्हें किस तरह इस जातीय अभिमान की झूठी अवधारणा से डील करना चाहिए । क्यों ऐसा है कि पश्चिम बंगाल सबसे ज़्यादा दूसरी बड़ी दलित आबादी होने के बावजूद वहाँ उनके ख़िलाफ़ अपराध कम है ,जबकि राजस्थान में आबादी कम होने के बावजूद ज़्यादा हैं ।
4- हर समाज में सामाजिक स्तरीकरण होता है । भारत के समाज के साथ समस्या यह है कि यह विभाजन भारत में श्रम यानी कर्म के आधार पर नही है ,जैसा कि गीता ने दावा किया है । अगर जातियों का विभाजन श्रम के अनुसार हों , अगर ऐसा कभी रहा हो , तो यह एक ग़ैर -शिकायती व्यवस्था हो सकती है , क्योंकि श्रम के विभाजन से आप अपनी रुचियों के हिसाब से किसी भी समाज का हिस्सा बन सकते हैं ,आवाजाही की सम्भावना रहती है ।अम्बेडकर तर्क देते हैं कि चूँकि यह व्यवस्था जन्म आधारित है ,इसलिए एक जाति अपने पर थोपे काम ढोने के लिए विवश है और यह व्यवस्था एक दलित , अछूत और स्त्रियों के लिए आगे बढ़ने के सभी दरवाज़े बंद कर देती है , जिसका ख़ामियाज़ा सदियों तक उस समुदाय को भुगतना पड़ता है ।
5- कोई भी समाज तभी बढ़ेगा , जब उसके सदस्यों के बीच आपसी भाईचारा बेहतर होगा । इसके लिए सिर्फ़ क़ानून और संविधान पर्याप्त नही है । सांस्क्रतिक बदलाव की ज़रूरत है । सोचने के तरीक़े को बदलने की ज़रूरत है । यह विचारने की ज़रूरत है कि जिन चीज़ों को हमने नही चुना है ,जैसे हमारा जन्म ,हमारी जाति , हमारा आर्थिक स्तर ,- उस पर अभिमान करना छोटी मानसिकता है । अगर हम भारत को बदलते हुए देखना चाहते हैं ,तो हमें यह छोटापन छोड़ना होगा । साथ – साथ रहकर ही समानता की मुश्किल का हल निकलेगा ।
मुझे पता है कि ऊपर कोई ऐसी बात नही लिखी है ,जो आपको पता नहीं हो । लेकिन यह अति साधारण बात भी मैने इसलिए लिखी है की NCRB का जो क्राइम से जुड़ा डेटा है , अख़बार में जो रोज़ाना ख़बरें हैं , वह बता रही हैं कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा चिंतन के स्तर पर पिछड़े समूहों की तरक़्क़ी को बर्दाश्त नही कर पा रहा है । अगर आप देखेंगे तो रोज़ाना हमारे सामाजिक जीवन में हम पिछड़े समूहों के ख़िलाफ़ कुछ सुनते ,बोलते ,देखते और पढ़ते हैं । इसलिए इस तरह की बातें हमेशा होती रहनी चाहिए , याद दिलाई जाती रहनी चाहिए , जब तक यह हमारी जातीय स्मृति में शामिल न हो जायें ।
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