लेखक आशुतोष तिवारी
आम आदमी पार्टी देश के लगभग हर राज्य में अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश कर रही है। राजधानी दिल्ली में पार्टी राजनीतिक तौर पर नियंत्रक की भूमिका में है। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने लगभग चौंकाती वाली संख्या के साथ सरकार बनाई है। पिछले निकाय चुनावों में, ख़ास तौर पर गुजरात के परिणाम, इस पार्टी के दिल्ली और पंजाब के बाहर बढ़ती राजनीतिक परिधि पर ठप्पा लगाते हैं। हिमाचल प्रदेश और महराष्ट्र के निकाय चुनावों में भी पार्टी ने बेहतर कही जाने वाली सफलता हासिल की थी। आगामी वर्षों में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें हिमाचल प्रदेश और गुजरात में आप का संगठित कैम्पेन चल रहा है। जिसे प्रशिक्षित प्रोफ़ेशनल नियंत्रित कर रहे हैं। राजनीति शास्त्र की सामान्य समझ कहती है कि एक लगातार बढ़ती हुई पार्टी जिस अनुपात में पहले से भरे हुए राजनीतिक स्पेस में अपनी जगह बनाती है, वह जगह दूसरी किसी वैसी ही पार्टी के सिमटते जाने के अनुपात के बराबर होती है। घटने और बढ़ने के अनुपात का यह खेल आम आदमी पार्टी दरअसल किसके साथ खेल रही है, यह इस तरह समझा जा सकता है।
वह कौन-कौन से राज्य हैं, जहां आम आदमी पार्टी जिताऊ विश्वास के साथ फ़ोकस कर रही है। ‘जिताऊ विश्वास’ से मेरा आशय उस राज्य में पैसे और केजरीवाल की उपस्थिति के प्रबंधन से है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने तीसरी बार सरकार बनाई है। पहले कांग्रेस और बीजेपी के मध्य शक्ति संतुलन यहां का राजनीतिक नेरेटिव था। आम आदमी पार्टी के आने से क्या बदला। भाजपा आज भी उसी चौचक अन्दाज़ में लगभग 39 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ चौड़ी हो रही हैं, वहीं कांग्रेस लगभग साफ़ हो चुकी है। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में आई गिरावट का फ़ायदा किसे हुआ है, यह टपरीबैठ पत्रकार भी बता देगा।
पंजाब में भी पहले राजनीतिक तौर पर मोटा-मोटी भाजपा-अकाली गठबंधन और कांग्रेस की सीध में लड़ाई हुआ करती थी, वहां 2014 के बाद ‘आप’ एक चुनावी शक्ति के तौर पर उभरी। अब पिछले विधानसभा चुनाव में पंजाब में सरकार बनाते हुए उसने जिस बड़े वोटबैंक में सेंध लगाई, वह कांग्रेस का विकल्प तलाशता हुआ मध्यम और निम्न वर्ग था। केंद्र में ताक़तवर तेवरधारी भाजपा और टूट से जूझती कांग्रेस में से इस चुनाव में ‘आप’ किस तरह के मतदाताओं को लुभा सकती है, राजनीति पर ज़मीनी नज़र रखने वाले पहले से समझ रहे थे।
इसी तरह उत्तराखंड में भी चुनावी लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच में हुआ करती थी। पार्टी वहां 70 सीटों पर होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए तन-मन-धन के निवेश में जुटी। भले ही उसे यहां उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली लेकिन इससे ‘आप’ के चुनावी राज्य छांटने की मंशा को समझा जा सकता है। गुजरात में भी कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर होनी है लेकिन ‘आप’ ने वह राज्य अपनी बढ़त के अभियानी रडार पर टिका रखा है। यही हाल हिमाचल प्रदेश का है। तो क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि ‘आप’ ज़्यादातर उन्ही राज्यों में अपने बढ़त अभियान के हेलीकाप्टर उतारती है, जहां कांग्रेस और भाजपा में सीधी लड़ाई है। ऊपर के उदाहरण इसे संयोग नहीं कहते, बल्कि सोची समझी पॉलिटिकल कसरत का आभास देते हैं।
अगर पार्टी जान बूझकर अपने अश्व उन चरागाहों की तरफ भेज रही है जहां सिर्फ़ अब तक भाजपा और कांग्रेस के घोड़े चर रहे थे, तो इस निश्चित चरगाह में कौन है जो राजनीतिक घास से वंचित हो रहा है। इसे कुछ तर्कों से समझा जा सकता है। पहला तो साफ़ उदाहरण दिल्ली का है, ‘आप’ के आने के बाद भी भाजपा तो है पर कांग्रेस नहीं है।यही पंजाब में देखा जा सकता है जहां पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। डेटा इस बात की पुष्टि करता है कि कांग्रेस की गिरावट और आप का बढ़ा मत प्रतिशत अनुक्रमानपाती है। गुजरात निकाय चुनाव में सूरत में जहां कांग्रेस पार्टी शून्य रही वहीं आप 27 सीटों पर जीती और 17 पर दूसरे स्थान पर रही। अहमदाबाद में 16 और राजकोट में आप 13 सीटों पर दूसरे स्थान पर थी। पहले इन स्थानों पर कांग्रेस काबिज़ थी, अब दूसरे नम्बर की लड़ाई में आप मुख्य भूमिका में आ रही है। निकाय चुनाव के आंकड़ों और आम आदमी पार्टी चुनाव की संधान कला को देखते हुए क्या कह सकते हैं कि यह पार्टी सीधी लड़ाई वाले राज्यों में भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा करेगी।
जो राजनीति में आया है, उसे हक़ है कि वह एक रोज़ प्रधानमंत्री बने। चौधरी चरण सिंह के शब्दों में दरअसल वह यही सपना लेकर ही आया है। इसलिए यह लेख आम आदमी पार्टी पर कोई लांछन नहीं है, बल्कि राजनीतिक सुगमता और चपल कुशलता का ‘बाई डिफ़ाल्ट’ ख़ामियाज़ा कांग्रेस को उठाना पड़ेगा। कुछ लोग कह सकते हैं कि अभी आप है ही कहां, इतनी जल्दी निर्णय देना ठीक नही । मैं सहमत हूँ। मुझे भी पता है कि कांग्रेस के पास एक लम्बी आज़ादी की विरासत है, संगठन है, नेत्रत्व विविधता है, जो कि आप के पास नहीं है। लेकिन आज का मतदाता क्या सोचकर अपने वोट तय कर रहा है, यह भी अहम सवाल है। हम यह भी जानते हैं कि आप एक चुप्पा पार्टी है। दिल्ली में आप पहली बार 27 सीट ले आएगी और लोकसभा में 4 सीटें पंजाब से, कौन कह सकता था। यह भी कौन कह सकता था कि पंजाब का मुक़ाबला एकतरफ़ा होने वाला है ।
कमोबेश कांग्रेस और आप की अभी की मतदाता तलाश के बुनियादी जाले एक जैसे हैं । कांग्रेस जहां अपनी राजनीतिक नीतियों में पापुलिज़म को जमकर स्वीकार करती है, स्टेट की जनवादी नीतियों की पक्षदारी करती रही है, सब्सिडी के हक़ में रही है, उसी तरह योजना के स्तर पर आप भी वैसी ही खड़ी दिखाई देती है। अभी भी दोनों राजनीतिक दलों के मतदाता वर्गों में कई बारीक फ़र्क़ हैं, लेकिन यह फ़र्क़ परम्परागत राजनीति की ज़मीन वाली जगहों पर ही लागू होते हैं। बदलते राजनीतिक स्पेस में नई शर्तों के तहत राजनीति की नई खिड़कियां बनती है, जहां निबाहना एक चुनौती होता है। यही वजह है केजरीवाल जिस राज्य के सीएम है वहां इंडियन यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी जैसे शख़्स की सक्रियता बढ़ाई गई है। राजनीति के विद्यार्थी जानते हैं कि यह सामान्य संकेत नहीं हैं।
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