लेखक ज़ैद चौधरी
कैसा हो यदि एक रोज़ आधी रात के समय आपको एक फ़ोन आए और आप से कहा जाए, चलिए जनाब सुबह आपको प्रधानमंत्री पद की शपथ लेनी है । कुछ ऐसा ही हुआ श्री आई के गुजराल यानी इन्द्र कुमार गुजराल के साथ और वह बने देश के बारहवें प्रधानमंत्री। वर्ष 1997 में अचानक रात 2 बजे गुजराल साहब को पता चला की वह देश के अगले प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। हालांकि उनका कार्यकाल एक वर्ष का ही रहा।
78 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बनने वाले आई के गुजराल प्रधानमंत्री बनने से पहले भी कई बड़े पदों पर रहे। जब गुजराल साहब प्रधानमंत्री बने तब किसी को नहीं लगा था की उनकी सरकार एक महीना भी टिक पाएगी। हिंदुस्तान का राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा था और देश, कांग्रेस के सामने खड़ा होता एक विकल्प देख रहा था।
आई के गुजराल का राजनीतिक सफर बहुत लम्बा तो था ही साथ ही रोमांचक भी रहा। 4 दिसंबर 1919 को पाकिस्तान के झेलम शहर में आई के गुजराल का जन्म हुआ। उनके पिता पाकिस्तान की असेम्ब्ली के मेंबर रहे थे। पार्टीशन के समय गुजराल पाकिस्तान के झेलम से दिल्ली आ गए और 1958 में MCD के उपाध्यक्ष नियुक्त हुए। इसी दौरान वो कांग्रेस के अन्य नेताओं और इंदिरा गांधी के सम्पर्क में आये। इंदिरा गांधी उस समय भारतीय राजनीति में अपने कदम जमा रहीं थी। इंदिरा को पिता पंडित नेहरू के जाने के बाद अपने राजनीतिक युद्ध में एक वज़ीर चाहिए था और वो वज़ीर बने इन्द्र कुमार गुजराल, जो इंदिरा गाँधी के सपोर्ट के चलते ही 1964 में राज्य सभा में शामिल हुए। यह वह दौर था जब कांग्रेस के भीतर एक नया कुनबा तैयार हो रहा था । इसमे शामिल था उस समय का एक ऐसा नेता जो न कभी मंत्री बना न मुख्यमंत्री, पर आगे चल कर सीधा प्रधानमंत्री बने – चंद्र शेखर।
चंद्र शेखर को इंदिरा कुनबे से जोड़ने का काम आई के गुजराल ने ही किया था। युवा नेता रामधन भी इस कुनबे का हिस्सा बने और सन 1971 में जब इंदिरा गाँधी ने सिंडिकेट के तमाम नेताओं को किनारे कर अपना वर्चस्व स्थापित किया तब इस कुनबे के सभी नेता पुरस्कृत किये गए। इन्द्र कुमार गुजराल को 1971 में इंदिरा गाँधी की जीत के बाद कैबिनेट में शामिल किया गया। फिर आया इमरजेंसी जिसके बारे में श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ‘ लोगो को झुकने के लिए कहा गया था, वो तो रेंग कर चलने लगे” । आडवाणी का यह व्यंग मीडिया पर भी था। इमरजेंसी का बिगुल फूंक दिया गया था, सभी सरकारी फैसले अनौपचारिक रूप से प्रधानमंत्री आवास से लिए जा रहे थे। हस्ताक्षर इंदिरा गाँधी के थे मगर मोहर थी संजय गाँधी की। संजय गाँधी इमरजेंसी के दौरान मीडिया प्रतिनिधियों से चाहते थे ककि वो इंदिरा राग गायें और इसके लिए संजय गाँधी ने बुलाया इनफार्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग मिन्स्टर आई के गुजराल को। जब गुजराल प्रधानमंत्री आवास पहुंचे तो पाया इंतज़ार मैडम प्राइम मिनिस्टर नहीं बल्कि संजय गाँधी कर रहे थे। संजय गाँधी ने तल्ख़ अंदाज़ में कैबिनेट मिनिस्टर गुजराल को आदेश सुनाया, जो कि गुजराल साहब को पसंद नहीं आया और वह भड़क कर बोल पड़े – ‘मैं आर्डर देश की प्रधानमंत्री से लेता हूँ तुमसे नहीं। ‘ इतना कह कर गुजराल वहां से निकल गए।
इंदिरा गाँधी को हालात का अंदाजा हो चूका था लेकिन न तो वो बेटे को नाराज़ कर सकती थी, न गुजराल जैसा भरोसे मंद साथी गवाँ सकती थीं। इसके लिए बीच का रास्ता निकाला गया , पहले तो गुजराल को दूरसंचार मंत्रालय में डाला गया फिर सोवियत संघ में राजदूत बना कर भेज दिया गया। कमाल देखिए , गुजराल को सोवियत संघ में राजदूत बना कर मास्को भेजा गया । इंदिरा गाँधी 1977 का चुनाव हारी और उसके बाद रहे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह दोनों में से किसी ने भी गुजराल को सोवियत संघ के हटा कर वापस नहीं बुलाया, क्यों की वह जानते थे उस समय जब अमेरिका, पाकिस्तान के समर्थन से भारत में अपना दखल बढ़ा रहा था तो रूस के साथ भारत के सम्बन्ध मजबूत करना कितना ज़रूरी है । इस कार्य के लिए उचित शख़्स था ; गुजराल जैसा एक समझदार और संवेदनशील व्यक्ति।
1980 के दशक में जब गुजराल को लगा कि न तो कांग्रेस में , न ही प्रशासनिक रूप से किसी रोल में उनकी ज़रूरत है ,तब 1987 में बोफोर्स का घोटाला सामने आया, और कभी राजीव गाँधी के सबसे करीब रहे साथी वी.पी सिंह ने ही उनसे बगावत कर दी। वी.पी सिंह उस समय हिन्दुस्तान में करप्शन के खिलाफ मुख्य चेहरा बन कर उभरे। वी.पी सिंह के इस आंदोलन ने नीव रखी जनता दल की। तब गुजराल को लगा कि दिल्ली में उनकी जगह अभी भी बाकी है। वहीँ वी.पी सिंह को भी तलाश थी ऐसे साथियों की , जो किसी विशेष क्षेत्र में महारत रखते हों और गुजराल बने उनकी विदेश नीति का मुख्य चेहरा। 1989 में लोकसभा के चुनाव हुए और गुजराल पंजाब के जलंधर से जीत कर पहुंचे लोकसभा में। लेफ्ट पार्टियों और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से बनी वी. पी. सिंह की सरकार में विदेश मंत्री बनाया गया। गुजराल को लगा शायद यही उनकी नीति है और राजनीति भी।
फिर आया साल 1991 का चुनाव, जो पहले जनता दल की नाकामियों पर लड़ा जा रहा था फिर 21 मई 1991 के बाद लड़ा गया राजीव गाँधी की हत्या के मुद्दे पर। इन्दर कुमार गुजराल भी चुनाव लड़ रहे थे मगर जलंधर से नहीं पटना से । पंजाब के गुजराल का बिहार के पटना से चुनाव लड़ना थोड़ा अजीब था, मगर यह उस समय बिहार की राजनीति में उभर रहे लालू प्रसाद यादव की कोशिश थी दिल्ली में अपने पांव ज़माने की। वह गुजराल के ज़रिये वी. पी. सिंह के करीब पहुंचना चाहते थे। 1991 का चुनाव वह पटना से लड़े और जीत भी गए लेकिन लोकसभा के सदस्य नहीं बन सके। दरअसल उस चुनाव में धांधली की कई शिकायतें चुनाव आयोग को मिली और चुनाव रद्द कर दिया गया। ये गुजराल के राजनितिक करियर का पहला दाग था। केंद्र में कांग्रेस ने वापसी की । जनता दल का प्रयोग विफल रहा। तब गुजराल को लगा कि उनके पॉलिटिक्स से रिटायरमेंट का समय आ गया है। परन्तु नियति को शायद कुछ और ही मंज़ूर था।
1992 में लालू प्रसाद यादव अपने मुख्यमंत्री आवास पर बैठकर राज्य सभा सदस्यों की सूची तैयार कर रहे थे। तभी लालू जी के पास वी पी सिंह का फ़ोन आया और राज्य सभा भेजे जाने वाली सदस्यों की उस लिस्ट में आई के गुजराल का नाम बिहार से जुड़वाया गया। दिल्ली की सियासत में विपक्ष के एक सांसद की कितनी ही भूमिका होगी। वो भी ऐसा नेता जो लाइमलाइट से दूर ही रहता हो। एक तरफ गुजराल अपने अभी भी चल रहे राजनीतिक सफर का आनंद ले रहे थे तो दूसरी तरफ सभी राजनितिक पार्टियाँ किसी न किसी गठजोड़ में लगी हुई थीं । सीताराम केसरी पूरी कोशिश कर रहे थे ; देवगोड़ा सरकार को गिरा कर , खुद को कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री स्थापित करने की। शरद पवार, लालू प्रसाद यादव, चंद्र बाबू नायडू, प्रफुल कुमार महंत, करूणानिधि आदि जैसे और कई अन्य नेता दिल्ली में खूंटा गाड़े बैठे थे इस उम्मीद में कि शायद प्रधानमंत्री की कुर्सी उनकी झोली में आ गिरे। बयानों के तीर चारों और से चलाये जा रहे थे। भानुमति का कुनबा उखड़ रहा था, समय करवट बदल रहा था 12 अप्रैल 1996 को देवेगौड़ा ने इस्तीफा दे दिया। चार दिन बाद 16 अप्रैल 1996 को मुलायम सिंह ने प्रधानमंत्री पद पर दावा ठोक दिया। पर उनका विरोध किया बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने। इसके बाद ज्योति बसु, स.र बोम्बई, जी.के मूपनार आदि के नाम भी प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आये परन्तु किसी के भी नाम संयुक्त मोर्चे की सहमति नही बनी ।
9 अकबर रोड, दिल्ली पर एक लंच हुआ और उस लंच का आयोजन शरद यादव ने किया। शरद यादव मेज़बानी कर रहे थे अपने दोनों मित्र स.र बोम्बई और आई के गुजराल की। स.र बोम्बई के शरद यादव के निवास पर पहुंचने से पहले ही उनके विरोध में फ़ोन आ चुके थे जिसकी खबर बड़ी शालीनता से शरद यादव ने स.र बोम्बई को दी और शरद यादव ने ही आई के गुजराल का नाम आगे कर दिया। ऐसा नहीं है की सभी दल गुजराल के नाम पर सहमत थे पर विरोध में कम ही लोग थे। फिर एक फ़ोन मिलाया गया मास्को, ये फ़ोन गुजराल को नहीं बल्कि उस समय मास्को दौरे पर गए तीसरे मोर्चे के नेता श्री हरकिशन सुरजीत सिंह को किया गया था। उन्हें बताया गया के ज़्यादातर लोग आई के गुजराल के नाम पर सहमत हैं तो आप भी मुलायम सिंह के नाम की ज़िद छोड़ दें । हरकिशन सुरजीत सिंह को लगा अब मुलायम के नाम की हिमायत करना सही नहीं और उन्होंने फ़ोन लगाया बंगाल में बैठे अपने मित्र ज्योति बसु को और इस तरह 21 अप्रैल 1997 को हिंदुस्तान को मिला अपना बारहवाँ प्रधानमंत्री, – आई. के गुजराल।
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