लेखक :आशुतोष तिवारी
भारत और यूरोप । यह केवल दो अलग -अलग भौगोलिक इकाई नहीं हैं । हमारे सोचने के बुनियादी चिंतन में उतने ही फ़र्क़ हैं जितने भूगोल में । दोनो अलग – अलग तरह की सभ्यताएँ हैं पर दोनो के कुछ केंद्रबिंदु हैं जो कहीं तो इन्हें एक करते हैं और कहीं पराए से हो जाते हैं । इस ब्लॉग में कुछ उन बिंदुओ पर बात करते हैं जो दोनो संस्कृतियों के अलग -अलग आयामों को हमारे सामने रखती है ।
1- ‘ राज्य’ यानी स्टेट की अवधारणा क़रीब 200 साल पुरानी है । इस कांसेप्ट को विश्वयुद्ध के संकट ने तरासा है । सीमाएँ , लोग , सरकार और स्वायत्ता से बनी यह दीवारें आज भले ही पूरी दुनिया का हिस्सा हों लेकिन भारतीय भूगोल में लोगों का एकीकरण हज़ारों सालों की सभ्यता और साथ रहने के समान अनुभव से विकसित हुआ है । भारत भले ही हर समाज की तरह कई अलग -अलग पहचानों में बँटा हो ,पर इसे बनाए रखने के लिए कभी ‘डर से दीवारें’ बनाने की ज़रूरत नही पड़ी और हज़ारों साल लोग एक साथ रहते हुए अपनी परम्परा को एक दूसरे के आघात -प्रतिघात से सीखते रहे और विकसित होते रहे । यूरोप में साझी सांस्कृतिक एकता एक होने के बावजूद वह तमाम राज्यों को पैदा होने से नहीं रोक पाई और वर्डवार के दौरान हमने देखा कि कैसे एक ही संस्कृति के मानस पुत्र होने बावजूद सब एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए । इन अर्थों में भारतीय राज्य , यूरोप के ‘राज्य’ की अवधारणा से अलग जान पड़ता है। तमाम ख़ामियों के बावजूद यहाँ संस्कृति की एकता और इसके स्वभाव ने बिखरे हुए जन को समेट कर रखा । हालंकि आज सारी दुनिया -अफ़्रीका व एशिया के समाज भी राज्य का एक निश्चित ढाँचा मानते है , जो यूरो संकट की पैदाइश है और जिसे मानने में कोई व्यवहारिक बुराई नही है ।
2- यूरोप में खोज की प्रवत्ति रही है । वह हमेशा अपने को परिभाषित करने के लिए बाक़ी दुनिया को घूमते -देखते रहे । कुछ लोग मानते हैं कि अच्छा होता अगर वह भारत की तरफ़ नहीं आते । यह ध्यान और किताबों में मगन रहने वाला देश शायद कभी किसी को दिखता ही नही । इसकी वजह यह भी है कि जिस तरह यूरोप की प्रवत्ति भीतर से बाहर की तरफ़ देखने में हैं , भारत की बाहर से भीतर की तरफ़ देखने की रही है । भारतीय चिंतन इसीलिए दर्शन के स्तर हीगेल , ब्रूनो , स्पिनोजा जैसे विचार , इनके सालों पहले सोच सका । यह इसीलिए मुमकिन हुआ ,क्योंकि दृष्टि बाहर की तरफ़ नही भीतर की तरफ़ थी । चिंतक मानते हैं कि यह आश्चर्य की बात है कि भारत की परम्परा में वाद – विवाद की इतनी जगह रही , दर्शन के स्तर पर यहाँ कई परम्पराएँ आपस में टकराते एक दूसरे में समाहित होती रहीं रहीं ।जाति व्यवस्था और इस जैसी अन्य ख़राबियों से बुद्ध,जैन , चर्वाकों जैसी चिंतन विविधता दिखी। इसके बावजूद यहाँ के दार्शनिकों ने कभी यूरोप से उलझना ज़रूरी क्यों नही समझा । यूरो केंद्रीय चिंतक फूकों ने अभिमान से कहा कि यूरोप के पास ऐसा कुछ है जिससे वह यहीं बैठे -बैठे पूरी दुनिया को समझ सकता है । क्या इसलिए? । नहीं , शायद इसलिए कि यूरोप का ‘मैं’ ‘अन्य’ से तुलना के आधार पर टिका हुआ है जबकि भारत का ‘आत्म’ अपने आप में स्वयं को पूर्ण समझता रहा और बहस भी उनसे ही की जो उससे चिंतन में कुछ -कुछ एकरूपता रखते हैं ,इसलिए बुद्ध ,जैन परम्पराओं से ख़ूब बात -चीत हुई लेकिन यूरोप इससे अछूता रहा ।
3- बहुत ज़रूरी अंतर है – प्रकृति और मानव के अलावा अन्य प्राणियों को ले कर । आज जब चारों तरफ़ समावेशी विकास और पर्यावरण की बातें चल रही हैं तो यह बिंदु और भी अहम हो जाता है । यूरोप की आज की दो मुख्य चिंतन पद्धतियाँ चाहें व मार्क्स वाद हो या पूँजीवाद – दोनो के केंद्र में मनुष्य है । दोनो ही मानते हैं कि यह मानव आसपास की प्रकृति का स्वामी है और उसके चारों तरफ़ जो कुछ भी है वह उसके लिए लिए है । इसी चिंतन से आज उपभोक्तावाद की शुरुआत हुई है। मनुष्य को केंद्र में रख कर सारी प्रकृति को अलग -थलग कर देखने से सबसे बड़ा नुक़सान मनुष्य का ही हुआ है । आज सात्र की भाषा में कहें तो आदमी अपना नर्क भुगतने के लिए विवश हो गया है । चिंतन की भारतीय परम्परा में प्रकृति में ईश्वर का अंश देखती है जबकि सभी सिमेटिक परम्पराएँ ईश्वर के बराबर किसी को नहीं मानती । रामनुजाचार्य ने खुल कर इसकी वकालत की है और जब पश्चिम में ऐसी ही बार दार्शनिक ब्रूनो ने की तो उसे चौराहे पर ज़िंदा जला दिया गया । हमें यह समझना ही होगा मनुष्य इस धरती का अंश है और उसके आसपास जो कुछ भी है ,वह उस तानेबाने का एक हिस्सा है , न कि मालिक । अब जो इकोलोजी की थ्योरी आई है , उसने खुल कर इस बात को रखा है और तब यह चिंतन पद्धति और भी ज़रूरी हो गई है ।
इस लिखावट का उद्देश्य दो संस्कृतियों की तुलना कर किसी को सही या ग़लत साबित करना नही है। ज़ाहिर सी बात है यूरो के जगत केंद्रित चिंतन ने भारत सहित तमाम देशों को कई सारी सहूलियतें दी हैं लेकिन हमें ठहर कर यह भी सोचना होगा कि हम अपनी देशी चिंतन पद्धतियों की ख़ामियाँ और ख़ूबियाँ ढूँढने के लिए क्या कर रहे हैं ? और हमने अपनी भाषाओं और कलाओं के साथ पिछले 200 सालों में कैसा सलूक किया है ।
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