लेखक: प्रशांत शुक्ला
यह देश गांधी और उनके विचारों के बिना अधूरा है। इसमें कोई अतिशंयोक्ति नहीं कि गांधी हिंदुस्तान की आज़ादी के सबसे बड़े नायक थे लेकिन दक्षिण अफ्रीका से लौटे बैरिस्टर एमके गांधी महात्मा कैसे बने, गांधी के जीवन वृतांत की यह अपने आप में एक ऐतिहासिक यात्रा है। लेकिन आज हम बात गांधी की नहीं करेंगे। आज बात करेंगे एक साधारण ब्राह्मण किसान की, जिसकी ज़िद के आगे गांधी भी झुकने को मजबूर हुए और गांधी के सत्याग्रह आंदोलन की वजह से अंग्रेज भी। 21 साल दक्षिण अफ्रीका में बिताने के बाद जब एमके गांधी 1915 में भारत लौटे तो देश के बारे में उन्हें बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी, या अगर थी भी तो किताबी या सतही। अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर महात्मा गांधी ने भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था समझने के लिए भारत भ्रमण शुरू किया। इसी सीखने, समझने और जानने की यात्रा में गांधी जी 1916 में लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लेने पहुंचे थे। बस यही गांधी के सामाजिक और राजनीतिक यात्रा वृतांत का टर्निंग प्वाइंट था।
लखनऊ का कांग्रेस अधिवेशन और चंपारण का वह ज़िद्दी किसान
दरअसल बिहार से आया एक साधारण सा सीधा-सादा आदमी गांधी से बातचीत करने के लिए मौका तलाश रहा था, नाम था…राजकुमार शुक्ल। खैर, राजकुमार शुक्ल को गांधी जी से मुलाकात का मौका मिल गया। वह बिहार के चंपारण जिले के रहने वाले एक किसान थे और उन्होंने बिहार में नील खेती के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। इसके लिए वह कई बार जेल भी जा चुके थे और अग्रेज़ों की यातनाओं को शिकार भी हो चुके थे। दिखने में बेहद सरल और सीधे लेकिन स्वभाव से ज़िद्दी राजकुमार शुक्ल ने अंग्रेज़ों द्वारा किसानों पर थोपे गए तीन कठिया कानून (किसानों को अपनी जमीन के तीन कट्ठे पर नील की खेती करने बाध्यता) के बारे में गांधी जी को बताया और उनसे चंपारण आने का आग्रह किया। गांधी जी ने राजकुमार शुक्ल की बातों को काफी देर तक सुना तो लेकिन उन्होंने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया।
‘मैं चंपारण का नाम तक नहीं जानता था’
अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में गांधी खुद लिखते हैं कि ‘लखनऊ जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक न जानता था। नील की खेती भी होती है, इसका तो ख्याल भी न के बराबर था। इसके कारण हजारों किसानों को कष्ट सहना पड़ता है, इसकी भी मुझे कोई जानकारी न थी। राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान ने वहां मेरा पीछा पकड़ा। वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के उस समय के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर) आपको सब हाल बताएंगे, कहकर वे मेरा पीछा करते जाते और मुझे अपने यहां आने का निमंत्रण देते जाते’। पुस्तक में नील के दाग वाले अध्याय में महात्मा गांधी का यह बयान दर्ज है। लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन के बाद महात्मा गांधी कानपुर चले गए, लेकिन राजकुमार शुक्ल ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। वहां उन्होंने कहा, ‘यहां से चंपारण बहुत नजदीक है एक दिन दे दीजिए।’ इस पर गांधी ने कहा, ‘अभी मुझे माफ कीजिए, लेकिन मैं वहां आने का वचन देता हूं।’ गांधी जी लिखते हैं कि ऐसा कहकर उन्होंने बंधा हुआ महसूस किया।
‘इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया’
इसके बाद भी इस ज़िद्दी किसान ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वो अहमदाबाद में गांधी जी के आश्रम तक पहुंच गए और जाने की तारीख तय करने की ज़िद करने लगे। ऐसे में गांधी से रहा न गया और उन्होंने कहा कि वे 7 अप्रैल को कलकत्ता जा रहे हैं, उन्होंने राजकुमार शुक्ल से कहा कि वहां आकर उन्हें लिवा ले जाएं। राजकुमार शुक्ल ने 7 अप्रैल, 1917 को गांधी जी के कलकता पहुंचने से पहले ही वहां डेरा डाल दिया था.। इस पर गांधी जी ने लिखा, ‘इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।’
पहले सत्याग्रह के सफल प्रयोग की प्रयोगशाला चंपारण
आखिरकार गांधी जी माने और 10 अप्रैल को राजकुमार शुक्ल और गांधी जी कलकत्ता से पटना पहुंचे फिर मुजफ्फरपुर होते हुए 15 अप्रैल को 1917 को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा। उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अस्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया। उन्होंने किसानों की दयनीय स्थिति देखी और उन्हें अग्रेजों के उस तीन कठिया कानून के खिलाफ लामबंद किया। यहीं उन्होंने पहली बार भारत में सत्याग्रह आंदोलन का सफल प्रयोग किया। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा। 135 साल से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गई और चंपारण किसान आंदोलन देश की आजादी के संघर्ष का मजबूत स्मारक बन गया था। यहीं से गांधी जी ने एक ही कपड़ा ओढ़ने की कसम खाई और इसी आंदोलन के बाद वह ‘महात्मा’ कहलाए। एक तरह से हम कह सकते हैं कि देश को चंपारण से ही नए तरह का आंदोलन मिला और चंपारण से ही देश को महात्मा गांधी जैसा नायक मिला। लेकिन इन सबके के पीछे जो अहम किरदार था, उसका नाम था राजकुमार शुक्ल। हालांकि यह विडंबना है कि जिस तरह से भारतीय इतिहास में राज कुमार शुक्ल को जगह मिलनी चाहिए थी उस तरह से उन्हें वह जगह आज तक कभी नहीं मिली।
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