लेखक ज़ैद चौधरी
2019 के आम चुनाव में मिली हार का हिसाब, आजमगढ़ और रामपुर में बीजेपी ने अखिलेश यादव से बराबर कर लिया है। और योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद उपचुनावों में मिली हार की कसक भी मिटा ली है। आजमगढ़ में बीजेपी उम्मीदवार दिनेश लाल यादव उर्फ़ निरहुआ और रामपुर में घनश्याम सिंह लोधी ने अपनी अपनी सीटें पर जीत हासिल की हैं।
गोरखपुर और फूलपुर सीट पर योगी आदित्यनाथ को 2018 में अखिलेश यादव से ही हार मिली थी। तब बुआ की मदद से भतीजे ने यानी बीएसपी के समर्थन से समाजवादी पार्टी ने लोक सभा की दोनों ही सीटों पर भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त दी थी। अपनी इस हार का बदला तो बीजेपी ने अगले आम चुनाव में ही ले लिया था, जब सपा के टिकट पर चुनाव जीतने वाले नेता ने पाला बदल कर भगवा चोला धारण कर लिया। लेकिन असल में योगी आदित्यनाथ को अब जाकर सुकून महसूस हो रहा होगा और साथ इस बात का भी एहसास हो रहा होगा कि यूपी में बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए मायावती का उनके साथ होना उनके लिए कितना फायदेमंद है।
उपचुनाव में दोनों सीटों पर मिली हार से अखिलेश यादव को जितना बड़ा नुकसान हुआ है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उतना ही बड़ा फ़ायदा हुआ हैं। दोनों के लिए ही एक बात समान कही जा सकती है, जैसे रामपुर में हार से सपा पर अखिलेश यादव की पकड़ मज़बूत हो सकती है, वैसे ही दोनों सीटों पर जीत से योगी आदित्यनाथ का बीजेपी के अंदर दबदबा और भी बढ़ेगा। ये बीजेपी नेतृत्व के लिए चिंता की बात जरूर हो सकती है।खास तौर पर यूपी चुनाव 2022 से पहले योगी आदित्यनाथ के अरविंद शर्मा को कैबिनेट में शामिल न करने के फैसले को लेकर लगातार चली चर्चाओं को देखें तो।
अखिलेश यादव ने तो एक तरीके से पहले ही अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लिए थे। वह चुनाव प्रचार करने गये ही नहीं, हो सकता है अखिलेश यादव की सोच ये ताहि हो की उपचुनावों में आखिर बड़े नेता जाते कहा हैं? या उन्हें लगा हो के जनता चुनाव ही उनके उम्मीदवार को मैंडेट दे चुकी है।
आज़म खान को रामपुर में सेट कर देने की तरह हो सकता है, अखिलेश यादव की धर्मेंद्र यादव को आजमगढ़ से टिकट देने के पीछे कोई खास रणनीति रही हो, लेकिन अब ये कहने का मौका तो मिल ही गया है कि परिवार में उनके अलावा अपने दम पर कोई अपना चुनाव भी नहीं जीत पा रहा है। राज्य की गद्दी चाहे न मिली हो पर घर राजा तो अब भी वही हैं।
लेकिन एक बात तो सौ फीसदी सत्य है की आजमगढ़ और आज़म के गढ़ में हारने का मलाल जरूर होगा। विधानसभा के चुनावों से पहले अखिलेश यादव ने कहा था कि वह विधानसभा का चुनाव आजमगढ़ की जनता से पूछ कर ही लड़ेंगे, लेकिन अखिलेश ने अचानक ही करहल से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी। ये हार उस का खामियाज़ा भी हो सकती है।
खैर बीत गयी सो बात गयी, अब समाजवादी के नेता और प्रवक्ता कितना भी कहें की सरकार ने पुलिस की सहायता से उनके सुप्पोर्टरों को वोट नहीं डालने दिए, सच तो यही है की अखिलेश न आज़मगढ़ बचा सके न आज़म का गढ़।
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