सालाबेग- युद्ध से भक्ति तक

लेखक – अदनान

भक्ति को सर्वोपरि माना जाता है । यह भावना जाति, लिंग, आयु, धर्म की मानव निर्मित सभी सीमाओं को पार कर जाती है। आज हम आपके लिए भगवान जगन्नाथ के एक महान भक्त की कहानी बताना चाहते हैं । वह भले ही अलग धर्म में पैदा हुए थे लेकिन उनकी भावनाओं और भक्ति ने उन्हें भगवान जगन्नाथ तक पहुँचा दिया । कहते हैं कि इनके लिए ब्रह्मांड के भगवान भी रुक गए और श्री मंदर भक्त कवि सालाबेग सभी दुनियावी चिंतन से दूर हो गए।

माना जाता है कि 17 वीं शताब्दी के आसपास सालाबेग जी का उड़ीसा में जन्म हुआ । यह एक मुस्लिम सूबेदार जहांगीर कुली खान उर्फ़ लालबेग और एक ब्राह्मण विधवा ललिता के पुत्र थे, जिन्हें बाद में फातिमा बीवी नाम दिया गया। अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए सालाबेग भी अपना सैन्य प्रशिक्षण पूरा करने के बाद युद्ध लड़ने के लिए चले गए। ऐसी ही एक लड़ाई के दौरान, सालाबेग गंभीर रूप से घायल हो गए थे । सारी चिकित्सा और उपचार अप्रभावी रहा। उसी दौरान उनकी माँ को गोपीनाथ ( कृष्ण ) के एक भक्त ने उन्हें श्री कृष्ण के चरण कमलों में अपनी अर्ज़ी दर्ज करने के लिए कहा।

सालाबेग जी इस बात से आशंकित थे कि भगवान कृष्ण दूसरे धर्म में पैदा हुए किसी व्यक्ति की बात क्यों सुनेंगे, फिर भी उन्होंने अपनी माँ के अनुरोध पर उनसे प्रार्थना की। ऐसा माना जाता है कि कुछ दिनों की प्रार्थना और ध्यान के बाद गोपीनाथ उनके सपने में दिखाई दिए, जिसमें भगवान ने उन्हें जली हुई राख (विभूति) को अपने घाव पर लगाने का निर्देश दिया। चमत्कारिक रूप से, वह अगले ही दिन ठीक हो गए और उनके मन में हिंदू धर्म और भगवान जगन्नाथ के जिज्ञासा और श्रद्धा उत्पन्न हो गयी । वह अधिक जानने के लिए श्री क्षेत्र जगन्नाथ पुरी धाम गए । हालांकि नियमों की वजह से उन्हें प्रवेश से वंचित कर दिया गया । निराश होकर भी वह भक्ति से विचलित नहीं हुए । वह वृंदावन गए , जहाँ उनकी माँ के अनुसार गोपीनाथ निवास करते हैं ।

वृंदावन में अपने लगभग एक साल के प्रवास के दौरान, सालाबेग लगातार भगवान की लीला कथाएँ सुनते रहे ।उन्हें श्री राधा और कृष्ण की लीलाओं को दर्शाने वाली भक्ति – कविता विशेष रूप से पसंद थी । उन्होंने ख़ुद भी अपनी यात्राओं के दौरान कई कविताओं की रचना की । अपने प्रवास के दौरान उनमें श्री जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा, वार्षिक रथ उत्सव आदि देखने की गहरी इच्छा विकसित हुई , जहाँ भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और भगवान बलभद्र को ‘बड़ा डंडा’ (रथ ) पर लाया जाता है और श्री गुंडिचा मंदिर की यात्रा की जाती है। अपनी मौसी ( श्री गुंडिचा )के मंदिर में, विशाल रथों में जनता को दर्शन की अनुमति दी जाती है। भगवान जगन्नाथ वहां नौ दिनों तक रहते हैं और इसके बाद वापस श्री मंदिर जाते हैं। सालाबेग देर से निकले , लेकिन फिर भी उम्मीद थी कि वह समय पर वहां पहुंच जाएँगे । अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने भगवान जगन्नाथ से अनुरोध किया और सबसे प्रसिद्ध भजनों में से एक की रचना की:

केने गेनी जौछा जगन्नाथ नकु
आम्भे दर्शन करिबू कहकु
खुंटिया डाका देले पहाड़ी बिजे काले
बिजय कारा प्रभु चापकू;
कुला बधूनकारा रदी पांडेय गड़ा गड़ि
बिधाता बामा हेला ओडिसाकू;
बड़ा देउलु बाहरी सगदिरे बिजे करिक
रेणु जे पादु थिबा श्री मुखकु;
कही सालबेगा निर्मल्य कान्हू हेबो

(जगन्नाथ को कहाँ ले जा रहे हो,
ब्रह्मांड के भगवान
हमें किससे दर्शन मिलेंगे
किसकी एक झलक हम पायेंगे
परिचारक चिल्लाते हैं और घोषणा करते हैं,
सलाबेगा इस प्रकार उदास है, उदास महसूस कर रहा है.
अब पवित्र चावल को कैसे सुखाया जा सकता है
हमारा जीवन वास्तव में शापित है।
)

इस दौरान कहते हैं कि एक चमत्कार हुआ । जगन्नाथ का रथ (नंदीघोष) अपनी वापसी की यात्रा के दौरान रास्ते में ही रुक गया और कई लोगों के गाड़ी खींचने की कोशिश करने के बावजूद नंदीघोष ने हिलने से मना कर दिया। ऐसी किवदंती है कि सालाबेग के पुरी पहुंचने और दर्शन करने के बाद ही यह रथ चला ।

अपने शेष जीवन के लिए, सालाबेग उस स्थान पर रहे जहां रथ रुक गया था और कालिया ठाकुर ( भगवान जगन्नाथ) के लिए भजन गाना और भजनों की रचना करना जारी रखा। सालाबेग की मृत्यु के बाद उनकी समाधि (कब्र) बददंडा (ग्रैंड ट्रंक रोड) पुरी पर बनाई गई और बालागंडी छत मठ के पास कब्र पर एक छोटा मंदिर भी बनाया गया । हर साल रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ के इस महान भक्त को श्रद्धांजलि देने के लिए रथ को रोका जाता है ।

एक और कारण है कि सालाबेग उड़ीसा में काफी याद किए जाते हैं – अपने लिखे हुए भजनों के कारण । सालाबेग ने ओडिया साहित्यिक परंपरा को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने शुद्ध उड़िया में नहीं लिखा इसलिए उनके भजनों आम लोगों को भी आसानी से समझ आते हैं ।यही वजह है कि सालाबेग की रचनाएं अभी भी उड़ीसा के लोगों के दिलों और होठों पर संरक्षित हैं। आज भी श्री मंदिर में मंगला आरती के बाद श्यामसुंदर जगन्नाथ की प्रसन्नता के लिए सालाबेग की “अहे नीला सैला” (इनकी कविता) उत्साहपूर्वक गायी जाती है।

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