लेखिका : ऋषिका अग्रवाल
एकनाथ शिंदे की ताजपोशी हो गई और वह महाराष्ट्र के 20वें मुख्यमंत्री बन चुके हैं। इसी के चलते महाराष्ट्र में चल रही राजनीतिक उठापटक भी शांत हो गयी है। सत्ता की कुर्सी इर्द-गिर्द रचे गए इस पूरे घटनाचक्र में बीजेपी केंद्र में रही। लेकिन सवाल यह है कि शिवसेना के दो खंड करने और मुख्यमंत्री की कुर्सी ठाकरे परिवार के नीचे से खींचने में भाजपा को क्या मिला। 55 विधायकों वाली शिवसेना के साथ मुख्यमंत्री पद पर समझौते से मना करने वाली भाजपा ने 39 विधयाकों वाली अघोषित शिवसेना को नेतृत्व देकर क्या हासिल किया? इस तरह से सवाल तमाम पॉलिटिकल पंडितों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। सबके अपने अपने कयास हैं। कोई कहता है कि यह 2024 के चुनावों से पहले महाराष्ट्र जीतने की शुरुआत है। कोई कहता है कि शिवसेना को हिन्दुत्व के खांचे बाहर करके बीजेपी उसमें खुद फिट होना चाहती है, बिना ठाकरे परिवार के। कोई कहता है एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार के उद्धव के साथ खेल कर दिया तो कई कहता है कि खुद उद्धव ने कांग्रेस और इनसीपी के साथ खेल किया है। लेकिन सच्चाई क्या है, यह आने वाले समय के गर्त में छुपी है।
इन सबसे इतर एक सच्चाई यह ज़रूर है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने एक मुख्यमंत्री बनाने से ज्यादा पा लिया और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की उम्मीदों को पलीता लगा दिया। शिवसेना और बीजेपी में राजनीतिक वर्चस्व की जो लड़ाई 2014 में शुरू हुई थी, उसका परिणाम यह हुआ कि न सिर्फ सत्ता की कुर्सी बाला साहेब परिवार से छिनी बल्कि उसके सामने शिवसेना का अस्तित्व बचाए रखने की चुनौती भी है। बहरहाल शिंदे सरकार में फड़नवीस भले ही डिप्टी सीएम हों लेकिन सत्ता का रिपोर्ट कंट्रोल दिल्ली में रखा है। ऐसे में नुकसान सिर्फ शिवसेना का नहीं हुआ है बल्कि उम्मीदों पर पानी एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फड़नवीस की उम्मीदों पर भी फिरा है।
अब यह सोचने का विषय यह है कि भाजपा ने ऐसा क्यों किया होगा? इसके कई मायने निकाले जा सकते हैं। मसलन, एकनाथ शिंदे के हाथ में कमान देकर सार्वजानिक रूप से यह मैसेज देना कि महाराष्ट्र में जो भी उठापटक चल रही थी वह शिवसेना के अंदर की थी। स्थिरता और राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए भाजपा ने सिर्फ मदद की है, विधायकों को पार्टी से तोड़ने जैसी किसी भी चाल में उसका हाथ नहीं है।
ऐसा भी माना जा रहा है कि भाजपा दूरदर्शिता की सोच रखकर चल रही है, 2024 में होने वाले आम चुनावों को ध्यान में रखकर उसने ऐसा करने की सोची। डेवलपमेंट के मुद्दे पर लोकसभा चुनावों में उद्धव, एनसीपी और कांग्रेस को घेर सके, दूसरी तरफ शिंदे की शिवसेना को समर्थन देने वाले मैसेज के साथ हिंदुत्व का एजेंडा भी साध सके। कुछ जानकारों का यह भी मानना है कि देवेंद्र फडणवीस सरकार के साथ रहकर अभिभावक की भूमिका निभाएंगे और एकनाथ शिंदे की सरकार के कामकाज पर भी नज़र रखेंगे। लेकिन यहां फिर से बीजेपी ने एक बार चौंकाया।
जैसे ही मुख्यमंत्री पद पर एकनाथ शिंदे का ऐलान किया गया सबकी नज़रें देवेंद्र फडणवीस पर जा टिकीं। लोगों के ज़ेहन में सवाल था कि जिस पद के लिए 2019 में उद्धव को स्वीकार नहीं किया, अब उसी पद को बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को क्यों दे दिया।|
हालांकि बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने यह नेरेटिव बनाने की कोशिश की कि पार्टी ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री का पद देकर यह साबित किया कि बाला साहेब ठाकरे की असली हिंदुत्व वाली शिवसेना एकनाथ वाली है न कि उद्धव ठाकरे वाली। इस तरह भाजपा किसी कलंक से भी बची रही और शिव सैनिक को सीएम बनाकर बालासाहेब की विरासत को समर्थन देने वाली छवि बनाने की कोशिश की।
बीजेपी के इस पैंतरे को अगर आप बंगाल चुनावों में गई गलती से सीख की तरह भी देख सकते हैं। क्योंकि बंगाल चुनावों में भाजपा ने TMC नेताओं को अपने पाले में ले आई थी लेकिन चुनाव के बाद वही नेता वापस अपनी TMC में चले गए थे, तो भाजपा ने उससे सबक लेकर महाराष्ट्र में ऐसा नहीं किया और पार्टी तोड़कर पार्टी के शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बना दिया।
इतना ही नहीं शिंदे के सीएम बनने से बचे हुए विधायक भी सरकार के गुट में आ सकते हैं। ऐसा भी माना जा रहा है भाजपा बालासाहेब की परंपरा को आगे बढ़ा रही है। बीजेपी महाराष्ट्र के लोगों को यह मैसेज भी देने की कोशिश कर रही है कि जिस तरह से बालासाहेब ने एक आम शिव सैनिक राणे को मुख्यमंत्री बनाया था, वैसे ही भाजपा ने शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया है। बहरहाल अटकलों का बाज़ार शिंदे और फड़नवीस की ताजपोशी के बाद भी गर्म है लेकिन रिजल्ट भविष्य तय करेगा।
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